ज़िंदगी की कश़मकश़ ने हमें कुछ ऐसा उलझाया
मैं खुद को भूला, कुछ समझ न आया
इससे भला तो वो बचपन था
जब सही ग़लत कुछ मालूम न था
ज़िंदगी बनाते बनाते हम इतना आगे बढ़ गए
कि अपने पराए सब हमसे बिछड़ गए
अब याद आते हैं बचपन के वो खेल खिलौने
वो ज़िद, वो झगड़े, वो रोने धोने
क़ाश वो बचपन के दिन लौट आते
हँसते खेलते दिन कट जाते।

माँ का हाथ थामे बेखबर चलते थे,
ReplyDeleteउसके आंचल मे छिप हर तकलीफ से महफूज़ थे,
लौट आ ओ प्यारे बचपन ,
तुझे एक बार खो चुकें हैं
अब हर कीमत पर तुझे सहेज ही लेंगे ,